झूठी FIR से बचने के लिए क्या-क्या कानून हैं?
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आये दिन देश में छोटी-बड़ी अपराधिक घटनाएं देखने और सुनने को मिलती हैं. ऐसे में जिस आदमी का नुक्सान होता है या जिसके साथ अपराध होता है, वह पुलिस में जाकर FIR करता है. क्या आप जानते हैं कि FIR आखिर क्या होती है और कैसे लिखी जाती है. लेकिन कई बार ऐसा भी देखा गया है कि लोग आपसी रंजिश में या किसी से बदला लेने के लिए झूठी FIR भी कर देते हैं. ऐसे में उस इंसान को क्या करना चाहिए. कैसे वो इस झूठी FIR से बच सकता है. आइये इस लेख के माध्यम से अध्ययन करते हैं.
FIR क्या होती है?
FIR को फर्स्ट इनफार्मेशन रिपोर्ट (First Information Report) कहते हैं. जब किसी के साथ कोई अपराध होता है, चोरी होती है इत्यादि तो वह पुलिस को रिपोर्ट लिखवाते हैं और इसी को FIR कहा जाता है. इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि जब घटना की पहली जानकारी को लिखित में बदला जाता है तो यह FIR होता है. यहीं आपको बता दें कि CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस को संज्ञेय मामलों में FIR दर्ज करना जरुरी है.
अगर कोई झूठी FIR दर्ज कराता है तो क्या करना चाहिए?
ऐसा देखा गया है कि कुछ लोग आपसी मतभेद में एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में झूठी या fake FIR लिखवा देते हैं. जिसके खिलाफ झूठी FIR होती है वो पुलिस और कोर्ट के कानूनी झंझटों में फंस जाता है और उसका समय, धन इत्यादि बर्बाद होता है. लेकिन झूठी FIR के खिलाफ कुछ ऐसे तरीकें हैं जिनसे बचा जा सकता है. आइये इसके बारे में जानते हैं. भारतीय संविधान में धारा 482 CrPC ऐसा ही एक कानून है जिसके उपयोग करने से बेकार की परेशानियों से बचा जा सकता है.
CrPC की धारा 482 क्या है?
इस धारा के अंतर्गत वकील के माध्यम से हाईकोर्ट में एप्लीकेशन लगाई जा सकती है. इसके साथ व्यक्ति अपनी बेगुनाही के सबूत भी दे सकता है. यानी CrPC की धारा 482 के तहत जिस बंदे के खिलाफ FIR कराई जाती है वह इसको चैलेंज करते हुए हाईकोर्ट से निष्पक्ष न्याय की मांग कर सकता है. इसके लिए वकील की सहायता से एप्लीकेशन को हाईकोर्ट में लगाया जाता है और झूठी FIR के खिलाफ प्रश्न किया जा सकता है.
व्यक्ति निम्न आधार पर CrPC की धारा 482 के तहत आवेदन दर्ज कर के झूठी FIR रद्द करने के लिए हाईकोर्ट से संपर्क कर सकता है-
- यदि झूठी FIR दर्ज कराई गई हो. - आरोपी के खिलाफ FIR जो दर्ज की गई है वह अपराध कभी हुआ ही न हो. - FIR में आरोपी के खिलाफ अपराध साबित करने के लिए उचित आधार के बिना केवल निराधार आरोप हों.
यहीं आपको बता दें कि अपराध (offence) दो प्रकार के होते हैं: संज्ञेय (cognizable) अपराध यानी गंभीर किस्म के अपराध जैसे कि गोली चलाना, मर्डर करना, डकैती इत्यादि और असंज्ञेय (non-cognizable) अपराध बेहद मामूली अपराध होते हैं जैसे मारपीट इत्यादि. संज्ञेय अपराधों में FIR दर्ज की जाती है और इस तरह के अपराध में पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है जबकि असंज्ञेय अपराधों में NCR (Non- cognizable report) दर्ज की जाती है. इस तरह के अपराध में पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार नहीं कर सकती है.
संज्ञेय अपराध में यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती है तो:
- CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस के सामने FIR दर्ज करना. - अगर पुलिस 154 धारा के तहत FIR दर्ज नहीं करती है, तो पीड़ित अपनी एप्लीकेशन 154 (3) के तहत वरिष्ठ पुलिस अधिकारी या एसएसपी को लिखित रूप में या पंजीकृत पोस्ट द्वारा जमा कर सकता है. - यदि इसके बाद भी पीड़ित की FIR पंजीकृत नहीं होती है तो वह धारा 156 (3) के तहत मजिस्ट्रेट से संपर्क कर सकता है और फिर मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी को FIR दर्ज करने का निर्देश देता है, तो ऐसे में फिर अधिकारी को इसे पंजीकृत करनी पड़ती है और इसका पंजीकरण शुरू करना होता है.
1. झूठी FIR अगर कोई दर्ज कर देता है तो ऐसे में सबसे पहले बेल लेनी चाहिए या तो ऐसे में anticipatory बेल ली जा सकती है जिससे आप बच सकते हैं या फिर regular बेल ले सकते हैं जो कि गिरफ्तारी के बाद ली जाती है.
बेल लेने के बाद सबसे पहले वकील करना होता है और उसकी मदद से हाईकोर्ट में एक एप्लीकेशन लगानी होती है CrPC की धारा 482 के तहत. यदि FIR किसी व्यक्ति के खिलाफ झूठी की गई है तो उसके पास बेगुनाही के कुछ सबूत तो होंगे ही. इन बेगुनाही के सबूतों को भी एप्लीकेशन के साथ लगाकर हाईकोर्ट में दिया जाता है. सबूत के तौर पर कुछ भी जैसे ऑडियो, वीडियो, फोटोग्राफस या लैटर वगेरा कुछ भी लगा सकते हैं. जैसे अगर कोई आपके खिलाफ चोरी करने के जुल्म में झूठी FIR करता है तो आप सबूत के तौर पर ये लगा सकते हैं कि आप उस वक्त वहां नहीं थे और जिस जगह थे वहां का प्रमाण दिया जा सकता है. साथ ही वकील की मदद से भी एविडेंस या सबूत तैयार कर सकते हैं. यदि आपके पक्ष में कोई गवाह भी है तो उसका भी एप्लीकेशन में जिक्र करना न भूले.
हाईकोर्ट में CrPC की धारा 482 के तहत जब एप्लीकेशन दी जाती है तो उसके बाद सुनवाई होती है और अगर कोर्ट को लगता है कि आपने जो भी प्रमाण या सबूत पेश किए हैं वो सही हैं, आपकी बेगुनाही को साबित करते हैं तो कोर्ट उस FIR को खारिज करने का आदेश देती है लेकिन अगर आप कोर्ट में पूर्ण रूप से सबूत नहीं दे पाते हैं जिससे आपकी बेगुनाही साबित हो तो कोर्ट एप्लीकेशन को खारिज कर देती है. जिससे फिर उस व्यक्ति के ऊपर चार्जेज लगाए जाते हैं और फिर ट्रायल शुरू हो जाता है.
यहीं आपको बता दें कि हाई कोर्ट से एप्लीकेशन खारिज होने के बाद व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में भी एप्लीकेशन दे सकता है. यहीं पर ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अगर कोई आपके खिलाफ झूठी FIR कर देता है और आप उसके खिलाफ CrPC की धारा 482 के तहत एप्लीकेशन दे देते हैं तो जब तक आपका केस कोर्ट में चलता है तब तक पुलिस आपके खिलाफ न तो कोई कारवाई कर सकती है और न ही आपको गिरफ्तार कर सकती है. कोर्ट जांच अधिकारी को जांच के लिए जरूरी दिशा-निर्देश भी दे सकती है. हाईकोर्ट जब आपके अनुसार जजमेंट दे देता है और आपकी बेगुनाही साबित हो जाती है तो आप अगर चाहे तो उस व्यक्ति के खिलाफ जिसने आपके ऊपर झूठी FIR की थी आप मानहानि का केस कर सकते हैं जिसमें आप मुआवजा (CrPC 250) ले सकते हैं, या उसको सजा भी दिलवा सकते हैं. या फिर IPC की धारा 211 के तहत आप उसके खिलाफ केस दर्ज कर सकते हैं जिसमें उसको दो साल तक की सजा, जुरमान या दोनों हो सकती है. साथ ही IPC की धारा 182 के तहत जिस पुलिस अधिकारी ने झूठी FIR दर्ज की हो उसके खिलाफ कारवाही की जा सकती है. ऐसे में 6 साल तक की सजा या एक हजार तक का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.
जब एक सरकारी कर्मचारी के पास एक दस्तावेज़ तैयार करने का कर्तव्य होता है और वह किसी भी व्यक्ति को चोट पहुंचाने के इरादे से उस दस्तावेज़ को इस तरह से तैयार करता है तो वह IPC की धारा 167 के तहत उत्तरदायी है. ऐसे में तीन साल तक की सजा, जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.
जब किसी भी सरकारी कर्मचारी के पास कोई दस्तावेज तैयार करने का कर्तव्य होता है और वह उस दस्तावेज़ को इरादे से इस तरह से तैयार करता है- - किसी भी व्यक्ति को चोट पहुंचाने के लिए; या - किसी भी व्यक्ति को कानूनी सजा से बचाने के लिए; या - किसी भी कानून के तहत व्यक्ति भी संपत्ति को जब्त करने से बचाने के लिए. ऐसे में IPC की धारा 218 के तहत तीन साल तक की सजा, जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.
जब कोई भी व्यक्ति अपने कानूनी अधिकार का दुरुपयोग करके गलत तरीके से किसी भी व्यक्ति को परीक्षण (trial) के लिए प्रतिबद्ध करता है या गलत तरीके से ऐसे व्यक्ति को सीमित करता है तो IPC की धारा 220 के तहत सात साल तक की सजा, जुर्माना और दोनों का प्रावधान है.
2. संविधान का अनुच्छेद 226 के तहत भी आप हाईकोर्ट में झूठी FIR के खिलाफ एप्लीकेशन लगा सकते हैं:
संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका (Writ petition under Art 226 of Constitution): यदि एक व्यक्ति के खिलाफ किसी व्यक्ति द्वारा झूठी FIR दर्ज की गई हो, तो ऐसे में व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत एक रिट याचिका दायर करके ऐसी FIR को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट से संपर्क कर सकता है. अगर हाईकोर्ट को सबूतों को देखकर लगता है कि व्यक्ति जिसके खिलाफ FIR की गई है वह निर्दोष है तो वह झूठी FIR को रद्द कर देता है. इस तरह के मामले में, हाईकोर्ट writs जारी कर सकते हैं-
परमादेश रिट (Mandamus writ)- इस रिट को एक पुलिस अधिकारी के खिलाफ जारी किया जा सकता है, जिसने झूठी FIR दर्ज की हो और कानूनी रूप से कोर्ट निर्देश देती है की वह अपने कर्तव्य को सही तरह से पूरा करे.
परमादेश रिट की परिभाषा: यह रिट (writ) न्यायालय द्वारा उस समय जारी किया जाता है जब कोई लोक अधिकारी अपने कर्तव्यों के निर्वहण से इनकार करे और जिसके लिए कोई अन्य विधिक उपचार (कोई कानूनी रास्ता न हो) प्राप्त न हो. इस रिट के द्वारा किसी लोक पद के अधिकारी के अतिरिक्त अधीनस्थ न्यायालय अथवा निगम के अधिकारी को भी यह आदेश दिया जा सकता है कि वह उसे सौंपे गए कर्तव्य का पालन सुनिश्चित करे.
प्रतिषेध रिट (Prohibition Writ)- इस रिट को अधीनस्थ न्यायालय को जारी किया जा सकता है जो आरोपी के खिलाफ दर्ज झूठी FIR पर आधारित व्यक्ति का मुकदमा चला रहा हो. इस प्रकार की आपराधिक कार्यवाही को रोकने के लिए प्रतिषेध रिट को जारी किया जाता है.
प्रतिषेध रिट की परिभाषा: यह रिट (writ) किसी उच्चतर न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध जारी की जाती है. इस रिट (writ) को जारी करके अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकारिता के बाहर कार्य करने से रोका जाता है. इस रिट के द्वारा अधीनस्थ न्यायालय को किसी मामले में तुरंत कार्रवाई करने तथा की गई कार्रवाई की सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दिया जाता है.
कानून हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए ही बना है, लेकिन किसी को चोट पहुंचाने के लिए इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है. आजकल ऐसे कई मामले देखने या सुनने को मिलते हैं जिसमें किसी आपसी रंजिश में व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुचाने के लिए झूठी FIR दर्ज की जाती है. आमतौर पर दहेज इत्यादि के मामलों में ऐसा देखा गया है कि भले ही कानून के तहत व्यक्ति निर्दोष साबित हो गया हो लेकिन समाज में उसको निंदा की द्रष्टि से ही देखा जाता है. वह पहले जैसा सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता है. तो अब आप जान गए होंगे कि झूठी FIR से कैसे बचा जा सकता है, इसके लिए कानून में क्या-क्या प्रावधान हैं, साथ ही FIR दर्ज करवाने वाले व्यक्ति के खिलाफ क्या-क्या कारवाई की जा सकती है और कैसे.
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